मीराबाई का जीवन परिचय

मीरा जिसे आज सोलहवी सताब्दी कि कवित्री और श्री कृष्णा भगवान जी का परम भक्त मानी जाता है मीरा कृष्ण भक्ति पदों कि कई रचनाए भी कि है इनके गुरु का नाम रविदास अथवा रैदास था जो मध्यकाल में भारतीय संत थे आपकों हमारी इस लेख में मीराबाई का जीवन परिचय के अंतर्गत सभी जानकारी दी गयी है आशा करता हु आपको हमारी यह पोस्ट अच्छा लगेगी

मीराबाई का जीवन परिचय - Mirabai Ka Jivan Parichay
मीराबाई का जीवन परिचय – Mirabai Ka Jivan Parichay

मीराबाई का जीवन परिचय -Mirabai Ka Jivan Parichay

मीरा का जन्म 1498 ई. में लगभग राजस्थान में मेड़ता के पास कुडकी ग्राम पाली में हुआ था उनके पिता का नाम रतनसिह और माता का नाम वीर कुमारी थी तथा वे जोधपुर संस्थापक राव जोधा की प्रपोत्री थी बाल्य अवस्था में ही इनके माता , पिता कि मृत्यु हो गई थी फिर वे बचपन से ही अपने दुदा अर्थात दादा जी के पास ही रहने लगी इन्हें इनकी सुरुअती शिक्षा अपने दुदा के पास रहकर प्राप्त की राव दुदा जी बड़े ही धार्मिक विचार और उदार प्रवित्ति के व्यक्ति थे
जिस कारण मीराबाई के जीवन पर इनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा बचपन से ही मीरा भगवान श्री कृष्ण कि बहुत बड़ी भक्त थी इनका विवाह उदयपुर के राणा सागा के बेटे भोजराज से हुआ था विवाह होने के कुछ दिनों के बाद उनके पति का आकस्मिक निधन हो गया मृत्यु होने के पश्चात मीराबाई को सती करवाने का प्रयत्न किया गया लेकिन मीरा इस बात से इनकार कर देती है
मीराबाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में लीन हो गई थी गोपियों कि भांति मीरा माधुर्य भाव से कृष्णा जी कि उपासना करती थी वे कृष्णा को ही अपना पति मानने लगी थी और दुनिया के लोक – लाज को भूलकर भगवान श्री कृष्ण के प्रेम लीन रहती

मीराबाई कि रचनाएँ – Mirabai Ki Rachnaye

  • राग गोविन्द
  • सोरठ के पद
  • गरवा गीत
  • गीत गोविन्द कि टीका
  • मीराबाई की मलार
  • नरसी जी रो माहेरो
  • फुटकर पद

मीराबाई कि काव्य-भाषा शैली -Mirabai Ki Bhasha Shaili

मीराबाई ने अपने काव्य में अपने हृदय से सरलतापूर्वक तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रस्तुत की है मीराबाई ने गीत काव्य की रचना और भगवान श्रीकृष्ण भक्त कवियों की परंपरागत रूप से पद शैली को अपनाया मीराबाई के जीतने भी पद है वो सभी संगीत ओके स्वरों से आपस में बंधे हुए हैं इनके द्वारा गाई गई गीतों में आवेशपूर्ण उनके विचारों से मिलती है

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मीराबाई की कविता का मुख्य उद्देश्य भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम भाव का ही था मीरा अपने संपूर्ण जीवन में कृष्ण की वियोगिनी बनी रही मीरा के काव्य और भाषा में शुद्धता साहित्यिक ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है ओर गुजराती राजस्थानी पश्चिमी हिंदी तब पंजाबी का भी प्रस्तुत किया गया है इनकी काव्य भाषा अत्यधिक मधुर और सरल तथा प्रभावपूर्ण है मीरा का पंडित प्रदर्शन करने का कभी भी उद्देश्य नहीं था

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मीरा के मन में श्रीकृष्ण के प्रति अत्यधिक प्रेम नहीं उन्हें कृष्ण काव्य के समूह स्थल तक पहुंचाया इनके द्वारा लिखी रचनाओं में सिंगर रस का अत्यधिक प्रयोग किया गया है तथा कहीं कहीं सांता राष्ट्र का भी उपयोग किया गया है इनके कई पदों में राँगो एवं छंदों का भी प्रयोग किया गया है

भावपक्ष

मीराबाई ने बाकी सभी गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति मान लिया था और सभी की तरह भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करती थी मीरा का जीवन सदा कृष्णमय था ओर वह सदैव कृष्ण भक्ति में डूबी रहती थी मीरा का कहना था कि मेरा तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई जा के सिर मोर मुकुट मेरे पति सोया ये कह कर सम्पूर्ण रूप से भक्ति की

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कलापक्ष

मीरा बाल अवस्था से ही कृष्ण भक्त थी मीरा का काव्य रचना का कोई भी उद्देश्य नहीं था जिसकारण मीरा का कलापक्ष अनगढ़ है साहित्यिक ब्रज भाषा होने के समीप उनके ऊपर राजस्थानी और गुजराती भाषा का विशेष महत्त्व रहा इनके कई काव्यों में उपमा रूपक उत्प्रेक्षा आदि कई अलंकारों का प्रयोग मिलता है मीरा के काव्य में विशेष रूप से सरलता और सहायता का ही गुण है

मीराबाई कि मृत्यु-Mirabai Ki Mrityu

मीराबाई कि मृत्यु एक रहष्य है इनकी मौत के बारे में बहुत विद्वानों का कहना है मीराबाई कि मृत्यु पैर की कहानिया प्रचलित है मीरा कि मौत लुनवा के भूरदान के अनुशार , वर्ष 1546 में इनकी मृत्यु हुई है जबकि डॉ . शेखावत के अनुशार 1548 में हुई है मीराबाई अपना आखरी समय द्वारिका में व्यतीत किया था
वाही इनकी मृत्यु हो गई 1533 इशवी के आसपास मीरा मेड़ता में रहना शुरू किया और आने वाले वर्ष में चित्तोड़ में बहादुर शाह के द्वारा हमला बोल दिया मीरा राजभवन को छोड़कर वृन्दावन कि यात्रा में चली गई और लम्बी अवधि तक यात्रा कि वर्ष 1546 के तहत द्वारिका चली गई और वही कृष्ण कि भक्ति में लीन हो गई तथा कहा जाता है कि मीराबाई वर्ष 1560 में श्री कृष्ण भगवान कि मूर्ति में समाहित हो गई

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